( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

शनिवार, 30 मई 2009

ऊधो! मन न होहि दस-बीस

प्रेम हो या पूजा = इवादत हो कि मुहब्बत - ज़रूरी है अप्रतिहत निष्ठां , एक यकीनी अहसास।
कोई भक्त अपने ईश्वर या आराध्य के प्रति तभी आराधना करे जब वह उसकी शुभता, शक्तिमत्ता और अनुग्रह-प्रियता पर एकनिष्ठता से विश्वास करता हो।
भक्ति आपकी च्वाइस है- किसी ने आपको विवश नहीं किया कि आप भक्ति करें। और फिर यदि आपने भक्ति को चुना तो निर्विकल्पक रूप से अपने प्रभु की आराधना करें।
उपनिषद् कहती है - क्षुरस्य धार इव निशिता दुरत्यया। यानि यह तेज छुरे की धार पर चलने जैसा दुष्कर कार्य है।
यो बारी है प्रेम की खाला का घर नाहिं।
सीस उतारो भूइं धरो फिर पैठो घर माहि। ।
यदि आपका अंहकार शेष है, यदि आपका इगो बचा हुआ है कि मैं भी कुछ हूँ तो पूजा अर्चना व्यर्थ है। यह अंहकार ही आप और आपके प्रभु के बीच की अभेद्य दीवार है।
किंतु यदि आपने अपने सर्वस्व का अपने आराध्य के प्रति समर्पण कर दिया तो दूसरी भावना आप तक फटक ही नही सकती। आजमाया हुआ है, आप चाहें तो आजमा लें ।
रहिमन भरी सराय लखि, पथिक आपु फिरि जाय।
यही हुआ था ज्ञानी-ध्यानी ऊधव कृष्ण की दीवानी गोपियों को समझाने गए कि अब कान्हा की आस छोडो -कुछ पर-ब्रह्म के निर्गुण रूप की आराधना करो। गोपियों ने उद्धव का बड़ा मान किया , सम्मान किया क्योकि वे ब्रह्म-ज्ञानी थे, शास्त्र-वेत्ता थे। साथ ही अपनी विवशता बतलाई कि हमारे पास एक-एक ही मन है जो कान्हा में तल्लीन है। दूसरा मन कहाँ से लाऊँ, जिससे आपके बताये अनुसार आराधना करूँ। हमने कन्हैया को मन में बसा लिया है। हम विवश हैं , परवश हैं ।
इस बात को सुन उद्धवजी को भक्ति का सार समझ में आया । गोपियों को तनिक भी संदेह होता तभी उस संदेह छिद्र से उद्धव का ज्ञान गोपियों के हृदय तक पहुँच पाता।
जहाँ संदेह है वहां पूजा हो अथवा प्रेम - कुछ सफल नही हो सकता।
आप प्रेम करते हुए किसी की परीक्षा नही कर सकते तो भक्ति करते अपने आराध्य पर किंचित भी अविश्वास नही कर सकते।
आप ने असफल प्रेम की कहानियाँ अवश्य सुनी होंगी - वहां यकीन का मजबूत अहसास नही होता होगा।
भक्ति हो या प्रेम इसे समझौते या एग्रीमेंट की तरह नहीं समझ सकते।
और जो ऐसा समझते हैं उनका जो भी हश्र होता है आपको विदित ही होगा।
आप की असहमति की व्यग्र प्रतीक्षा में,
आप सबका ।

मंगलवार, 26 मई 2009

'अहम् ब्रह्म अस्मि' का तात्पर्य

अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।

शुक्रवार, 22 मई 2009

पतन का कारण

ध्यायतः विषयान पुंसः संगः तेषु उपजायते ;
संगात संजायते कामः कामत्क्रोधो अभिजायते।
क्रोधात भवति संमोहः सम्मोहात स्मृति-विभ्रमः ;
स्मृति-भ्रंशात बुद्धि-नाशः बुद्धि-नाशात प्रनश्यति।
अर्थात
मन यानि हमारी इच्छा और संकल्प का आधार ही हमारे दुःख-सुख, हानि-लाभ, भय-क्रोध आदि सभी भावों का एक मात्र अधिष्ठान है। हमारे पास किसी भी तरह की अनुभूति का एक मात्र जरिया है ।
इस बात ऐसे समझो
आप जब खाना खा रहे है तो खाने में मजा क्यों आता है अथवा क्यूँ नहीं आता है ?
हम हर वस्तु ( विषय ) से एक ज्ञानात्मक / संवेदनात्मक सम्बन्ध बनाते रहते हैं , या यूँ कहें कि बनते रहते है।
इन्ही संबंधो का विकास हमारे अन्दर इच्छा के रूप में होता है। यानि हम उसे पाना चाहते है - यही है संग, आसक्ति , वासना ।
सांसारिक जीवन में जितने उत्थान पतन होते हैं -इसी के कारण होता है।
तो क्या मनुष्य इच्छा करना छोड़ दे?
कतई नहीं, हाँ इसके कारण जो भी दुःख-सुख , पीडा , संताप होगा उसे झेलने को तैयार रहे।
संतों का कहना है कि दुःख से बचने की इच्छा करने वाले को सुख का त्याग करना होगा। ऐसा नही हो सकता कि सिर्फ़ सुख ही सुख हो।
दुःख से बचने विकल्प है सुख से भी सामान दूरी बनाने के बाद।
मित्रो!
इच्छा समाप्त करने का महान उपदेश तो मैं नहीं दे पाउँगा तो संयम को मशविरा तो दूंगा। मन , वचन, कर्म - तीनों रूपों में आत्म-नियंत्रण रखने वाला कभी पराजय को नहीं पायेगा।
नहीं, नहीं, यह जीतने का फार्मूला नहीं है - यह है नहीं हारने का नुस्खा, रात को चैन से सोने का रास्ता।

शुक्रवार, 8 मई 2009

दर्शन क्या है !

दोस्तों !
आप सोचते हैं ?
क्या सोचते है ?
क्यों सोचते हैं?
बिना सोचे काम न चलेगा ?
आप सोचते कैसे हैं- क्या इस पर कभी गौर किया है ?
आप हैं- इस बात की कोई गारंटी है आपके पास ?
आप अपने बारे में क्या जानते हैं?
नहीं, कोई जल्दी नहीं है ठीक से सोच समझकर फिर इसका जबाव दें ।
आज का सवाल -
आप अपने विषय में बस एक सूचना दें जिसमे आप के आलावा कोई और , मैं दुहराता हूँ -कोई भी दूसरा किसी भी रूप में सम्मिलित न हो।

मुझे आपके जबाव का इंतजार रहेगा ।
आपका शुभचिंतक
रवीन्द्र दास