घमंड क्या है ?
यह एक मनोदशा है। मानसिक स्थिति है जो एक भावात्मक वैचारिक आधार लेकर टिकी रहती है। जब-जब यह मानसिक स्थिति मनुष्य पर प्रभावी होती है उस-उस समय वह अपने अत्यधिक शक्तिशाली समझता है।
घमंड अहंकार , दंभ , अहम्मन्यता , दर्प आदि सभी समानार्थी पद है। यह स्वाभिमान, गर्व , गौरव, या अभिमान आदि पद से तात्त्विक रूप से भिन्न है।
अपनी स्थिति का समुचित भान होना अभिमान है। स्वयं का बोध व्यावहारिक जीवन के आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। यह कुछ कुछ आत्मविश्वास जैसा होता है। आत्मविश्वास और अभिमान में फर्क बस इतना है कि आत्मविश्वास स्वमुखापेक्षी है और अभिमान पर-मुखापेक्षी। गहरी नींद में और आनंदातिरेक के क्षणों में हम अपने अभिमान को भी विस्मृत कर बैठते हैं। सघन प्यार के क्षणों में किया जाने वाला अर्थ हीन कल्लोल इसी भाव का द्योतक है कि हम उन क्षणों में अपना वजूद तक भुला बैठे हैं।
लेकिन घमंड या अहंकार इसके एकदम उल्टा है। अपने श्रेष्ठ और शक्ति शाली समझना इसका एक पहलू है तो प्रतिपक्ष या सामने वाले तुच्छ और कमजोर समझना दूसरा पहलू। अपने आपको समझदार, समर्थ अथवा शक्तिशाली समझने का हक़ सबको है। लेकिन जो सामने वाले को कमजोर , नाकारा या बेवकूफ समझता है, वह अहंकारी या घमंडी हो जाता है।
संसार हो या वैराग्य - अहंकार को कभी अच्छा नतीजा देने वाला नहीं माना जा सकता क्योंकि अहंकार का मारा मनुष्य कभी भी सामने वाले का सही मूल्याङ्कन कर ही नहीं पाता और अंततः वह न उबर पाने वाली हार की चपेट में आ जाता है। अहंकार सचमुच सबसे बड़ा शत्रु है। अपने विनाश से बचने के लिए सिर्फ हमें अपने घमंड या अहंकार से बचना चाहिए। अहंकार का छोड़ना बुजदिली नहीं, स्वाभिमान को छोड़ना कायरता है। अहंकार और स्वाभिमान में फर्क करें और अपने जीवन में हुए परिवर्तन का सुखद अहसास करें और हमें जरूर बताएं।
संत कबीर की सहज वाणी को याद करें-
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे , आपहु को सुख होय।।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
बुधवार, 2 जून 2010
पुनर्जन्म में विश्वास है ?
मैं उन सब से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ जो जाति पर आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। प्रश्न है -
क्या आप को पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास है ?
और इस प्रश्न का उत्तर देने की जरुरत नहीं है क्योंकि मैं आप का जबाव जानता हूँ। नाराज न हों, आपका जबाव यही होगा न, कि नहीं, हम कर्म-पुनर्जन्म के खोखले और अवैज्ञानिक बकवास पर कतई विश्वास रखना तो दूर की बात है, हम तो इन अंध विश्वास पर बात करना भी पसंद नहीं करेंगे।
तो आपको जाति प्रथा में भी यकीन न होगा ?
नहीं, नहीं, कभी नहीं।
लेकिन जाति भारतीय समाज की सच्चाई है, जिसकी वज़ह से कुछ लोग मलाई चाट रहे हैं और कुछ लोग मैला ढोते-ढोते बीमार होकर मर जाते है। आप इसके एवज़ में क्या करते हैं?
हम कर भी क्या सकते हैं - निंदा करते है, लेख लिखते है, इसका विरोध करने के लिए लोगों को उकसाते हैं....
आप यह सब कुछ जाति को स्पष्ट हो जाने पर और आराम से कर सकेंगे। लेकिन आप अगर डर रहे है कि उन कथित अवर्णों की संख्या कहीं बहुत अधिक होगी और वे लोकतंत्र में अपने हिस्से की मांग तो नहीं बाधा देंगे !
नहीं... नहीं....आप लोग इतने कायर और डरपोक नहीं है।
क्या आप को पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास है ?
और इस प्रश्न का उत्तर देने की जरुरत नहीं है क्योंकि मैं आप का जबाव जानता हूँ। नाराज न हों, आपका जबाव यही होगा न, कि नहीं, हम कर्म-पुनर्जन्म के खोखले और अवैज्ञानिक बकवास पर कतई विश्वास रखना तो दूर की बात है, हम तो इन अंध विश्वास पर बात करना भी पसंद नहीं करेंगे।
तो आपको जाति प्रथा में भी यकीन न होगा ?
नहीं, नहीं, कभी नहीं।
लेकिन जाति भारतीय समाज की सच्चाई है, जिसकी वज़ह से कुछ लोग मलाई चाट रहे हैं और कुछ लोग मैला ढोते-ढोते बीमार होकर मर जाते है। आप इसके एवज़ में क्या करते हैं?
हम कर भी क्या सकते हैं - निंदा करते है, लेख लिखते है, इसका विरोध करने के लिए लोगों को उकसाते हैं....
आप यह सब कुछ जाति को स्पष्ट हो जाने पर और आराम से कर सकेंगे। लेकिन आप अगर डर रहे है कि उन कथित अवर्णों की संख्या कहीं बहुत अधिक होगी और वे लोकतंत्र में अपने हिस्से की मांग तो नहीं बाधा देंगे !
नहीं... नहीं....आप लोग इतने कायर और डरपोक नहीं है।
रविवार, 4 अप्रैल 2010
शंकराचार्य के दर्शन के विषय में
आचार्य शंकर भारतीय दार्शनिक जगत के सबसे अधिक लोकप्रिय और संभवतः प्रतिनिधि चिन्तक हैं। उनके इस श्लोकंश, " ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" से दार्शनिक जगत का नौसिखुआ भी अवगत है और इसी अतिलोकप्रियता के कारण उनका चिन्तनात्मक अभिप्राय बहुधा एक सरल किम्वदंती के रूप में अनुदित होने लगा। इस तरह का अनुवाद एक ओर तो उनकी लोकप्रियता को द्योतित करता है किन्तु दूसरी ओर उनके गंभीर दार्शनिक प्रसंगों को सरलीकृत कर उसे हास्यास्पद बनाता है। विगत दो शताब्दियों में गंभीर और प्रतिभाशाली आलोचकों और प्रत्यालोचकों ने इस कृत्य को बड़े मनोयोग से किया है। यह या तो अनुदार मनोवृत्ति का कार्य है अथवा भयमिश्रित चेतना की प्रतिक्रिया। यद्यपि इसके भी कारण हैं। पहला, संस्कृत भाषा, जिसे प्रगतिशीलता और आधुनिकता का सर्वथा प्रतिगामिनी मानी गई तो दूसरा कारण यह रहा कि भारत आधुनिक समाज की निकटवर्ती परिधि से बाहर अवस्थित रहा। तथापि अब भू -मंडली- करण के इस दौर में उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में इन कारणों की पकड़ शिथिल पड़ गई सी प्रतीत हो रही है। अतएव, धर्म-मीमांसक और तत्त्व-मीमांसक के रूप में स्थापित आचार्य शंकर को समाज-मीमांसक के रूप में प्रस्तावित करता हुआ इसी लेखक का प्रयास है - शंकराचार्य का समाजदर्शन, विद्यानिधि प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित है। आपकी कृपा दृष्टि इस पुस्तक पर पड़ेगी तो इस अकिंचन का श्रम अवश्य सार्थक होगा।
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
झूठ क्या होता है ?
बड़ा ही पुराना प्रसंग है - सच और झूठ का ।
क्या होता है सच ? हमें पता है ? फिर भी हम दावा करते है कि जी, हम सच जानते हैं। और हमारे इसी दावे से दुनियादारी का कारोबार बेखटके चल रहा है। इसी दावे से हम अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और इसीके सहारे जीते-जीते एक दिन हम परम धाम की ओर चल पड़ते हैं। हमारा सच या तो यहीं रह जाता है या फिर कहीं खो जाता है। और जब मैं ही न रहा तो उस सच की कौन खोज करता है। जय रामजी की।
सच क्या था ?
हमने कभी विचार नहीं किया , बस मान लिया क्योंकि मेरे आने से पहले सब उसको सच मानते थे और हमारा क्या जाता था , सो हमने भी उन सभी लोगों के साथ शुरू हो गए और चलते गए, बहते गए, बहते गए बहुत दूर तक ।
ये हुआ सच। सच सबके साथ का सच। काम चलाना था इसलिए मेरा भी सच। सच के व्यावहारिक उपयोग के लिए यह जरुरी है कि इसकी सामाजिक स्वीकृति हो, सार्वजानिक स्वीकार हो। अन्यथा यह अनर्गल प्रलाप कहलाता है।
और हम प्रलाप नहीं करना चाहते, हम अपने भावों को संप्रेषित करना चाहते हैं।
लेकिन झूठ ?
झूठ का कोई चेहरा पहचानते हैं आप ?
यह झूठ क्या होता है ? आप जिसे सच नहीं मानते , वह झूठ होता है, है न !
' इसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है, लगता है यह झूठ बोल रहा है। '
हम अक्सर दूसरों के झूठ के लिए चिंतित रहते हैं। लेकिन दूसरों से मुझे क्या मतलब ?
मतलब है ।
मतलब होना नहीं चाहिए था पर होता है। क्यों? क्योंकि हम परमुखापेक्षी हैं। परमुखापेक्षी होने का अर्थ है- हम अपने को दूसरों की नजरों में बनाना चाहते है। हम अपना वजूद ही तब मानते है जब दूसरा स्वीकार करे।
आइए, विचार करें कि झूठ क्या होता है?
जब हम अपने वजूद, अपनी उपस्थिति, अपना अस्तित्व को स्वीकार करवाने की धुन में अपने भी हृदय के विरुद्ध जब कुछ बोलते हैं अथवा कोई कार्य-कलाप करते हैं, वही झूठ होता है।
झूठ असत्य और मिथ्या से अलग होता है। अलग इस अर्थ में होता है कि एक मनुष्य , सजग और समझदार मनुष्य असत्य और मिथ्या पर विश्वास करता है और प्रायः तनिक संदेह भी नहीं करता किन्तु झूठ पर वह विश्वास नहीं कर पाता। असत्य और मिथ्या धारणा, समझ और विश्वास से समबद्ध होते हैं किन्तु झूठ व्यक्ति से सीधा जुड़ा होता है।
जिस बात को बोलना या जिस काम को करना हमें ही गलत और अनुचित लगे , वह झूठ है।
क्या होता है सच ? हमें पता है ? फिर भी हम दावा करते है कि जी, हम सच जानते हैं। और हमारे इसी दावे से दुनियादारी का कारोबार बेखटके चल रहा है। इसी दावे से हम अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और इसीके सहारे जीते-जीते एक दिन हम परम धाम की ओर चल पड़ते हैं। हमारा सच या तो यहीं रह जाता है या फिर कहीं खो जाता है। और जब मैं ही न रहा तो उस सच की कौन खोज करता है। जय रामजी की।
सच क्या था ?
हमने कभी विचार नहीं किया , बस मान लिया क्योंकि मेरे आने से पहले सब उसको सच मानते थे और हमारा क्या जाता था , सो हमने भी उन सभी लोगों के साथ शुरू हो गए और चलते गए, बहते गए, बहते गए बहुत दूर तक ।
ये हुआ सच। सच सबके साथ का सच। काम चलाना था इसलिए मेरा भी सच। सच के व्यावहारिक उपयोग के लिए यह जरुरी है कि इसकी सामाजिक स्वीकृति हो, सार्वजानिक स्वीकार हो। अन्यथा यह अनर्गल प्रलाप कहलाता है।
और हम प्रलाप नहीं करना चाहते, हम अपने भावों को संप्रेषित करना चाहते हैं।
लेकिन झूठ ?
झूठ का कोई चेहरा पहचानते हैं आप ?
यह झूठ क्या होता है ? आप जिसे सच नहीं मानते , वह झूठ होता है, है न !
' इसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है, लगता है यह झूठ बोल रहा है। '
हम अक्सर दूसरों के झूठ के लिए चिंतित रहते हैं। लेकिन दूसरों से मुझे क्या मतलब ?
मतलब है ।
मतलब होना नहीं चाहिए था पर होता है। क्यों? क्योंकि हम परमुखापेक्षी हैं। परमुखापेक्षी होने का अर्थ है- हम अपने को दूसरों की नजरों में बनाना चाहते है। हम अपना वजूद ही तब मानते है जब दूसरा स्वीकार करे।
आइए, विचार करें कि झूठ क्या होता है?
जब हम अपने वजूद, अपनी उपस्थिति, अपना अस्तित्व को स्वीकार करवाने की धुन में अपने भी हृदय के विरुद्ध जब कुछ बोलते हैं अथवा कोई कार्य-कलाप करते हैं, वही झूठ होता है।
झूठ असत्य और मिथ्या से अलग होता है। अलग इस अर्थ में होता है कि एक मनुष्य , सजग और समझदार मनुष्य असत्य और मिथ्या पर विश्वास करता है और प्रायः तनिक संदेह भी नहीं करता किन्तु झूठ पर वह विश्वास नहीं कर पाता। असत्य और मिथ्या धारणा, समझ और विश्वास से समबद्ध होते हैं किन्तु झूठ व्यक्ति से सीधा जुड़ा होता है।
जिस बात को बोलना या जिस काम को करना हमें ही गलत और अनुचित लगे , वह झूठ है।
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
चित्त क्यों व्यथित होता है !
कभी न कभी , किसी न किसी वज़ह से सबका चित्त व्यथित होता है। लेकिन क्यों होता है ? इस पर विचार किया। विद्वानों का तो कहना है कि सुख और दुःख तो मन के विकल्प हैं। इनकी स्थिति वास्तविक नहीं होती। विद्वान् चाहे जो कहें किन्तु इस अवास्तविक स्थिति से ही हमारा सम्पूर्ण व्यवहार नियंत्रित होता है। हम भरसक प्रयत्न करते रहते हैं कि हमारे चित्त में , ह्रदय में , मन में सुख का स्थायी वास हो और दुःख कभी न आये।
किन्तु हमारे लाख चाहने और कोशिश करने से भी ऐसा नहीं हो पाता। हमारे चित्त में सुख का वास अपेक्षाकृत क्षणिक होता है और दुःख का वास अपेक्षाकृत अधिक स्थायी। तटस्थ मन तो कभी हो ही नहीं पाता। मन की तटस्थता तो मोक्ष है, महा शांति है, निर्वाण है , परम समत्व है, जो विरला ही अर्जित कर पाता है।
संसार में , सांसारिक जीवन में परम शांति चाहिए भी नहीं। अगर परम शांति मिल जाए तो संसार ही निस्सार हो जाए। बल्कि सांसारिकता ही नष्ट हो जाए। हम संसार में शांति नहीं चाहते प्रत्युत विजय चाहते हैं। हम हमेशा द्वंद्व में लगे रहते हैं। इसी द्वंद्व में हम जीत चाहते हैं।
यह द्वंद्व हर बार बाहरी नहीं होता, कभी-कभी आतंरिक भी होता है। और मज़े की बात यह है कि आन्तरिक द्वंद्व बाहर के द्वंद्व से अधिक क्लिष्ट होता। बाहरी द्वंद्व में हम किसी दूसरे व्यक्ति से भिड़ते हैं और जीत के प्रयास करते हैं। इस प्रयास में हम किसी अन्य व्यक्ति को भी सम्मिलित कर लेते है। इसके लिए कई बार पार्टी बन जाती है , समूह बन जाता है फलतः इस तरह के द्वंद्व की हार जीत का मसला व्यक्तिगत नहीं रह जाता, सामूहिक या सामाजिक हो जाता है।
किन्तु जब द्वंद्व आन्तरिक होता है तो स्थिति पूरी तरह से भिन्न होती है। इस द्वंद्व में व्यक्ति स्वयं ही स्वयं के विरुद्ध होता है अर्थात द्वंद्व के इस सिरे पर भी खुद खड़ा होता है और दूसरे सिरे पर भी खुद वही। यह स्थिति हम सबके जीवन में बार-बार आता है। यह बात सुनने में अटपटी सी लग रही हो कि भला कोई खुद ही खुद के खिलाफ कैसे हो सकता है! लेकिन ऐसा होता है।
और इस तरह के आन्तरिक द्वंद्व में जीत किसी की हो - हार आपकी निश्चित होती है। इसे आन्तरिक धर्म-संकट की तरह समझ सकते है। इसकी जीत में भी हार है। हमें जीत की ख़ुशी नहीं हो पाती, हार का गम बेशक होता है।
गीता, श्रीमद्भागवद्गीता कहती है ," सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ " । कैसे होगा कि कोई सुख और दुःख को , लाभ और हानि को तथा जीत और हार को बराबर समझे ?
और जब नहीं समझेंगे तो चित्त व्यथित होगा। जब जब आपकी आकांक्षा पूरी नहीं होगी- चित्त व्यथित होगा।
विकल्प हमारे पास दो हैं -१) या तो इच्छा - अभिलाषा से स्वयं को दूर रखें; २)या व्यथित चित्त के साथ जीने का अभ्यास करे।
" मन रे ! तू काहे न धीर धरे " का कोई सही और ठोस जबाव इस संसार में नहीं है, नहीं है।
किन्तु हमारे लाख चाहने और कोशिश करने से भी ऐसा नहीं हो पाता। हमारे चित्त में सुख का वास अपेक्षाकृत क्षणिक होता है और दुःख का वास अपेक्षाकृत अधिक स्थायी। तटस्थ मन तो कभी हो ही नहीं पाता। मन की तटस्थता तो मोक्ष है, महा शांति है, निर्वाण है , परम समत्व है, जो विरला ही अर्जित कर पाता है।
संसार में , सांसारिक जीवन में परम शांति चाहिए भी नहीं। अगर परम शांति मिल जाए तो संसार ही निस्सार हो जाए। बल्कि सांसारिकता ही नष्ट हो जाए। हम संसार में शांति नहीं चाहते प्रत्युत विजय चाहते हैं। हम हमेशा द्वंद्व में लगे रहते हैं। इसी द्वंद्व में हम जीत चाहते हैं।
यह द्वंद्व हर बार बाहरी नहीं होता, कभी-कभी आतंरिक भी होता है। और मज़े की बात यह है कि आन्तरिक द्वंद्व बाहर के द्वंद्व से अधिक क्लिष्ट होता। बाहरी द्वंद्व में हम किसी दूसरे व्यक्ति से भिड़ते हैं और जीत के प्रयास करते हैं। इस प्रयास में हम किसी अन्य व्यक्ति को भी सम्मिलित कर लेते है। इसके लिए कई बार पार्टी बन जाती है , समूह बन जाता है फलतः इस तरह के द्वंद्व की हार जीत का मसला व्यक्तिगत नहीं रह जाता, सामूहिक या सामाजिक हो जाता है।
किन्तु जब द्वंद्व आन्तरिक होता है तो स्थिति पूरी तरह से भिन्न होती है। इस द्वंद्व में व्यक्ति स्वयं ही स्वयं के विरुद्ध होता है अर्थात द्वंद्व के इस सिरे पर भी खुद खड़ा होता है और दूसरे सिरे पर भी खुद वही। यह स्थिति हम सबके जीवन में बार-बार आता है। यह बात सुनने में अटपटी सी लग रही हो कि भला कोई खुद ही खुद के खिलाफ कैसे हो सकता है! लेकिन ऐसा होता है।
और इस तरह के आन्तरिक द्वंद्व में जीत किसी की हो - हार आपकी निश्चित होती है। इसे आन्तरिक धर्म-संकट की तरह समझ सकते है। इसकी जीत में भी हार है। हमें जीत की ख़ुशी नहीं हो पाती, हार का गम बेशक होता है।
गीता, श्रीमद्भागवद्गीता कहती है ," सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ " । कैसे होगा कि कोई सुख और दुःख को , लाभ और हानि को तथा जीत और हार को बराबर समझे ?
और जब नहीं समझेंगे तो चित्त व्यथित होगा। जब जब आपकी आकांक्षा पूरी नहीं होगी- चित्त व्यथित होगा।
विकल्प हमारे पास दो हैं -१) या तो इच्छा - अभिलाषा से स्वयं को दूर रखें; २)या व्यथित चित्त के साथ जीने का अभ्यास करे।
" मन रे ! तू काहे न धीर धरे " का कोई सही और ठोस जबाव इस संसार में नहीं है, नहीं है।
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