अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
मंगलवार, 26 मई 2009
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9 टिप्पणियां:
ज्ञानवर्धक पोस्ट
१००% सत्य कहा,स्व से बड़ा कोई ब्रह्म नहीं है।
Thnk you very much sir
इस महावाक्य का उपयोग कैसे करे औऱ जप कैसे किया जाय
Mai ek swapn maaya mai hu. Mere koi bhi echa kriya ush swapn ko or gehra karti hai. Sirf dhyan hi ek matra kriya jo vaastavikta ko spast karti hai
Thank you for enlightenment. 😇
aham brahmasmi
सही १०१%
शानदार व्याख्या
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