क्या आप अपने ही टेलीफोन नंबर से अपने ही नंबर पर फोन कर सकते है ? नहीं, शायद आपका जवाब यही होगा।
और सही जवाब है। हम कितनी भी तरक्की कर लेते हैं तो भी अपने आपसे घनिष्ठ होना नहीं सिख पाते। वैसे सांसारिक जीवन में अपने-आप से काम ही क्या है ? जो कुछ भी करते हैं, यह सोचते हुए करते हैं कि लोग क्या कहते हैं- अच्छा या बुरा ? हर काम को , उसके गुण-दोष को, उसकी खूबी-खराबी को , उसके औचित्य-अनौचित्य को अन्य लोग निर्धारित करते हैं। और हम दूसरो का मुंह जोहते रहते हैं कि किसी तरह वे हमारे काम को अच्छा कहें , उसका अनुमोदन करें। ये जो बेईमानी , भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार, रिश्वतखोरी वगैरह कुकृत्य हैं, आप क्या सोचते है- लोग इनका अनुमोदन नहीं करते ? खूब करते हैं। मेरा दावा है , इसका अनुमोदन आज बंद होगा कल से ये सारे कुकर्म अपने आप होने बंद हो जाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं होगा , यह भी सच है।
सारे कर्म= सुकर्म या कुकर्म, सीखे जाते हैं ।
एक छोटा सा , नन्हा सा बच्छ है। हम उसे गणेशजी, शिवजी, हनुमानजी, कृष्ण जी , देवीमाता, आदि किसी की तस्वीर को देखकर कहते है, प्रणाम करो। वह करने लग जाता है। हम सोचते है कि हमने उसे एक सद्गुण सिखाया। उसे छुपना-छिपाना , झूठ बोलना वगैरह सिखाते है । उसे इसके फायदे भी बताते हैं । ये सब करते हुए हमें एकबार भी नहीं लगता कि हम कुकर्म कर रहे हैं ? क्यों? इसलिए कि संसार का यही दस्तूर है। हमने भी इसी तरह सीखा है। जैसे, ये पिता हैं, ये बुआ है, ये दादाजी हैं, ये अपने चाचाजी हैं और ये पड़ोस वाले अंकलजी। हमने भी ऐसे ही सीखा और अपने बच्चे को भी वैसे ही सीखा दिया । इसमें ग़लत क्या है ? कुछ नहीं , कुछ भी नहीं ।
लेकिन ये सीखना नहीं है । यह है है मान लेना। यह ज्ञान नहीं है, यह विश्वास है।
विश्वास की जड़ें गहरी होती जाती हैं , मनुष्य अधिक से अधिक सांसारिक होता जाता है। और उसी क्रम में अपने आप से दूर। और दूसरो की आंखों से देखना, दूसरो के कानों से सुनना , दूसरोकी समझ से समझना.......... यानि जिंदगी पूरी तरह से परमुखापेक्षी हो जाती है। अपनी समझ अपनी नहीं रह जाती हमारे सुख-दुःख जैसे भाव भी हमारी ख़ुद की मर्जी की नहीं रह जाती ।
ऐसे में आत्मा का क्या होता होगा ? यही बिन्दु विचारणीय है ।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
गुरुवार, 12 नवंबर 2009
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