( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

आतम ज्ञान बिना सब सुना

क्या आप अपने ही टेलीफोन नंबर से अपने ही नंबर पर फोन कर सकते है ? नहीं, शायद आपका जवाब यही होगा।
और सही जवाब है। हम कितनी भी तरक्की कर लेते हैं तो भी अपने आपसे घनिष्ठ होना नहीं सिख पाते। वैसे सांसारिक जीवन में अपने-आप से काम ही क्या है ? जो कुछ भी करते हैं, यह सोचते हुए करते हैं कि लोग क्या कहते हैं- अच्छा या बुरा ? हर काम को , उसके गुण-दोष को, उसकी खूबी-खराबी को , उसके औचित्य-अनौचित्य को अन्य लोग निर्धारित करते हैं। और हम दूसरो का मुंह जोहते रहते हैं कि किसी तरह वे हमारे काम को अच्छा कहें , उसका अनुमोदन करें। ये जो बेईमानी , भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार, रिश्वतखोरी वगैरह कुकृत्य हैं, आप क्या सोचते है- लोग इनका अनुमोदन नहीं करते ? खूब करते हैं। मेरा दावा है , इसका अनुमोदन आज बंद होगा कल से ये सारे कुकर्म अपने आप होने बंद हो जाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं होगा , यह भी सच है।

सारे कर्म= सुकर्म या कुकर्म, सीखे जाते हैं ।

एक छोटा सा , नन्हा सा बच्छ है। हम उसे गणेशजी, शिवजी, हनुमानजी, कृष्ण जी , देवीमाता, आदि किसी की तस्वीर को देखकर कहते है, प्रणाम करो। वह करने लग जाता है। हम सोचते है कि हमने उसे एक सद्गुण सिखाया। उसे छुपना-छिपाना , झूठ बोलना वगैरह सिखाते है । उसे इसके फायदे भी बताते हैं । ये सब करते हुए हमें एकबार भी नहीं लगता कि हम कुकर्म कर रहे हैं ? क्यों? इसलिए कि संसार का यही दस्तूर है। हमने भी इसी तरह सीखा है। जैसे, ये पिता हैं, ये बुआ है, ये दादाजी हैं, ये अपने चाचाजी हैं और ये पड़ोस वाले अंकलजी। हमने भी ऐसे ही सीखा और अपने बच्चे को भी वैसे ही सीखा दिया । इसमें ग़लत क्या है ? कुछ नहीं , कुछ भी नहीं ।
लेकिन ये सीखना नहीं है । यह है है मान लेना। यह ज्ञान नहीं है, यह विश्वास है।
विश्वास की जड़ें गहरी होती जाती हैं , मनुष्य अधिक से अधिक सांसारिक होता जाता है। और उसी क्रम में अपने आप से दूर। और दूसरो की आंखों से देखना, दूसरो के कानों से सुनना , दूसरोकी समझ से समझना.......... यानि जिंदगी पूरी तरह से परमुखापेक्षी हो जाती है। अपनी समझ अपनी नहीं रह जाती हमारे सुख-दुःख जैसे भाव भी हमारी ख़ुद की मर्जी की नहीं रह जाती ।
ऐसे में आत्मा का क्या होता होगा ? यही बिन्दु विचारणीय है ।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

चेतना के दो रूप

चेतना के दो रूप होते हैं-
१) विशुद्ध चेतना और
२) प्रकार्यात्मक चेतना ।
हम चेतन कार्यों में जिस चेतना से रूबरू होते है, वह है प्रकार्यात्मक चेतना यानि फंक्शनल कांशसनेस । चेतना का यह रूप प्रक्रियाशील रहता है इसलिए इसमे परिवर्तन की सम्भावना हमेशा रहती है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह पल-पल परिवर्तित होता भी रहता है ।
शुद्ध प्रत्ययवादी दार्शनिक आदि शंकराचार्य और शुद्ध भौतिकवादी चिन्तक कार्ल मार्क्स , आश्चर्यजनक रूप से इस मसले पर एक-मत हैं।
और जो विशुद्ध चेतना है उसके विषय में शंकराचार्य कुछ भी स्पष्ट कहने से बचते है तो मार्क्स इसे तत्त्वमीमांसा का मुद्दा बता कर इससे बचने का मशविरा करते हैं।
फ़िर यह विशुद्ध चेतना है क्या बला? तो मैं आपको समझाता हूँ-
हमारी चेतन अवस्था की तीन उप-अवस्थाएँ हैं -१) जाग्रत , २) स्वप्न अर्थात अर्ध निद्रा तथा ३) सुषुप्ति ।
जाग्रत अवस्था अर्थात जगी हुई स्थिति में प्रक्रियाशील चेतना अपने मुखर स्वरूप में क्रियाशील रहती है। स्वप्न में यही चेतना अपने अवचेतन को अग्रसर कर देती है। इस अवस्था में स्वप्न द्रष्टा पूर्वोक्त चेतना द्वारा जुटायी सामग्री का पुनः उपभोग करता है, जैसे घास खाने वाले पशु पागुर करते हुए कए हुए को फिर खाकर आनंद पाता है। अब सुषुप्ति में , जब सारी इन्द्रियां शिथिल होकर अपने-अपने कर्तव्य से विरत हो चुकी होती है यानि कान सुन नहीं सकता हो, नाक सूंघ नहीं सकती हो, आँखे देख नहीं सकती हो , त्वचा स्पर्श-ज्ञान नहीं ले सकती हो , जीभ स्वाद का रस नहीं ले पाता हो और मन संकल्प-विकल्प अर्थात किसी भी प्रकार की सोच-विचार में असमर्थ हो । इस स्थिति को आश्वास - मरण की तरह भी समझा जा सकता है - यही है सुषुप्ति की अवस्था ।
इस सुषुप्ति की अवस्था में चेतना तो बनी रहती है । या नहीं? किंतु चेतन व्यवहार का पूर्णतया अभाव रहता है। चेतना की यह अवस्था ही विशुद्ध चेतना है।
यहाँ , इस अवस्था में चेतना चेतना को देखती है किसी और को नहीं ।
जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ , इस अवस्था के विषय में विमर्श करने से चिन्तक-दार्शनिक हमेशा से बचते रहे हैं क्योंकि इस स्थिति को सत्यापित या मिथ्यापित किया जाना लगभग असंभव है - यह आत्मसाक्षात्कार का मामला है(जिसमें वैज्ञानिक समझ वाले लोगों की रूचि नहीं भी हो सकती है) ।
छान्दोग्य उपनिषद कहती है, प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दिन ब्रह्म-लोक की यात्रा करता है (किंतु कोई विरला ही ब्रह्म का शुद्ध चेतना का अहसास कर पाता है)।
यही हैं चेतना के दो रूप।
अतिरिक्त जिज्ञासा , प्रश्न अथवा विवाद के लिए अवश्य लिखें।
विनीत,
डॉ रवीन्द्र कुमार दास

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

प्रकृति और पुरूष

प्रकृति और पुरूष ।
सांख्य दर्शन की व्याख्या है कि मूल तत्त्व के दो रूप हैं - प्रकृति और पुरूष। पुरूष अर्थात चेतन तत्त्व । चेतना कैसी? निरपेक्ष, उदासीन , निष्क्रिय - सिर्फ़ देखता रहने वाला साक्षी = प्रतिक्रिया विहीन साक्षी ।
किंतु प्रकृति अचेतन है, जड़ है तो भी सक्रिय है । यह सक्रियता कैसी है ? एक अचेतन तत्त्व में सक्रियता कैसे आ सकती है ? यह सक्रियता आती है पुरूष के साहचर्य से , सहवास से। पुरूष का संसर्ग मात्र पाकर प्रकृति चंचल हो उठती है, सक्रिय हो उठती है, जैसे प्रिय के आगमन से कामिनियाँ चंचला हो जाती हैं ।
सांख्य दर्शन का यह रूपक पुरूष वर्चस्व वादी है - यह अच्छा नहीं है किंतु है।
ध्यान देने की बात है कि प्रकृति सब कुछ करती है, यही सब कुछ करती है किंतु उसके कुछ भी करने के लिए पुरूष का सान्निध्य अनिवार्य है। अकेली प्रकृति कुछ नहीं कर सकती । पुरूष वाद ने अपना खेल कर लिया । बच्चा जानेगी स्त्री और वंश चलेगा पुरूष का !
पुरूष निर्लिप्त है , पुरूष को किसी भी तरह की लिप्सा नहीं है । उसे प्रकृति ही भोग के संसार में ले जाती है - ऐसा सांख्य दर्शन मानता है।
सांख्य दर्शन और भी बहुत कुछ कहता है। अपनी धारणा को बनाए रखने के लिए बहुत सारे प्रपंच रचता है।
पुरूष और प्रकृति ।
संसार के दो स्तम्भ है - सुनने में अच्छा लगता है किंतु व्याख्या जब आगे बढती है तो इसमे विद्रूपता और भयानक होकर सामने आती जाती है ।
पारस्परिकता के नाम पर सांख्य दर्शन पक्षपात की राजनीति करता है।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

ईश्वर मर गया !

बहुत साल हुए, बल्कि शताब्दी गुजर गई - किसी अर्ध-विक्षिप्त दार्शनिक नीत्से ने कहा था कि ईश्वर मर गया।
हम ठहरे ईश्वरवादी पुतले , सो हमने महत्त्व न दिया।
सवाल है कि ईश्वर था कहाँ ?
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, या गिरजों में ?
या हमारे आपके मन में, ह्रदय में ?
मैं यह दावे से नहीं कह सकता कि ईश्वर है या था ?
पर मैं यह निश्चय पूर्वक कहना चाहता हूँ कि ईश्वर का डर था ?
इसी डर से ईश्वर का शासन, प्रशासन कायम था।
फिर लोगों ने ईश्वर का डर दिखा कर अपना उल्लू सीधा करना शुरू किया ।
भोले-भले लोग डरे भी।
फिर वे भोले-भले लोगों ने भी ईश्वर से नहीं डरने का हिम्मत जुटाया ।
और , अभी का मौजूदा हाल यह है कि कोई भी ईश्वर से नहीं डरता।
हाँ, लोग-बाग थोड़ा सा , बहुत थोड़ा सा , जैसे, करोड़ के लिए दो - चार हजार दे कर अपना काम निकलवाने ईश्वर की शरण में जाने की चतुराई जरुर करने लगे हैं।
खैर! ईश्वर सबका भला करें।
फिर भी , ईश्वर यदि जीवित होते तो कहीं कोई ईमानदारी दिख जाती, जो दीखता नहीं - इसलिए हे प्रभु! तुम्हारे जीवित होने की आस रही नहीं।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

निष्काम कर्म और सकाम कर्म

काफी पहले की बात है, मेरे किसी मित्र ने पूछा कोई ऐसा रास्ता बताओ जिससे दुःख न हो।
मैं पहले काफी घबराया कि क्या बेतुका सवाल है। फ़िर मैंने पूछा कि सुख चाहते हो या दुःख से छुटकारा ? मित्र ने दुःख से छुटकारा ।
मैंने कहा निष्काम कर्म कर्म करो। दुःख बिल्कुल न होगा।
निष्काम कर्म मतलब?
कर्म करो क्योंकि कर्म करना ही पड़ता है। लेकिन नतीजा से संचालित होकर कर्म करोगे तो दो स्थितयां होंगी- या तो मनोनुकूल परिणाम आएगा या नही आएगा । आया तो खुशी होगी और न आया तो दुःख ।
ये तय है कि कर्म अपने परिणाम को स्वयं निर्धारित करता है यानि कर्म के बराबर ही परिणाम होता है। तो पूछोगे निष्काम कर्म की क्या जरुरत?
जरुरत है अटैचमेंट कम करने की ।
किसी भी काम को एक काम जानो- नतीजा पैदा करने का जरिया न मानो।
वह उलझ गया
मैंने कहा - कर्म दो तरह के होते है- एक , जो हम भौतिक परिवर्तन के उद्देश्य से करते है , जैसे , दूध से दही बनने का उपक्रम या जो भी इस तरह के काम है। और दूसरा है- जो हम किसी मानव-व्यक्ति को प्रभावित करने के उद्देश्य से करते है , जैसे प्रेम या चापलूसी या चुगलखोरी । हम इस तरह के कर्म एक निश्चित उद्देश्य को लेकर ही करते हैं तथा इस तरह के कार्यों में असफल होने के खतरे बहुत अधिक होते हैं।
यह दूसरे तरह के कार्य ही है - सकाम कर्म , जो इन कार्यों से बचा हुआ है उसे न्यूनतम दुःख होता है।
जैसे आपने बहुत मेहनत करके खाना बनाया- भोजन तैयार भी हो गया आप बैठे हैं खानेवाले खाने की तारीफ करेंगे = बस यहीं आप गलती कर रहे हैं। खाना बनाना आपके वश में था और आप तारीफ सुनना चाहते हैं
या आप किसी का काम ख़राब करवाकर उसकी बेइज्जती करवाना चाहते हैं = यहाँ आप सकाम कर्म की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं ।
संक्षेप में , कर्म के अनिवार्य परिणाम से रत्ती भर अधिक की आकांक्षा सकाम कर्म है ।
एक उदहारण और लेते है।
कोई पुरूष है - वह किसी स्त्री की खूब देखभाल या आगे-पीछे करता है। वह पुरूष उस स्त्री से प्रेम की उम्मीद करता है जो पूरी नहीं हो पाती । वह पुरूष दुखी हो जाता है । अब इस दुःख का क्या मतलब है ?

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

नैतिकता बनाम कानून

नैतिकता क्या है?
हम क्यों चाहते हैं कि समाज में नैतिकता बनी रहे ?
हम अपने बच्चों को सही-ग़लत, उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे की पहचान क्यो करवाते हैं?
छोडिये इन बातों को, सबसे पहले तो यह समझ लें सही और ग़लत में कुछ फर्क है भी या नहीं?
हमारा देश भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तंत्र है। समानता , भाईचारा आदि महान मूल्यों को संविधान का आधार बिन्दु बनाया गया है। इसी समानता की दुहाई देकर कुछ माननीय न्यायाधीशों ने ' गे '(समलैंगिक मैथुन करने वालों ) को निरपराध की कोटि में रखा। एक कथित कुकृत्य को स्वतंत्रता का धरातल दिया। उन न्यायविदों ने उन घिनौने लोगों को एक समुदाय के रूप में देखा। फैसले का ख्याल किया जाय तो समलैंगिक मैथुन अब गैर-कानूनी नही।
अदालत को इस बात का भी संज्ञान लेना चाहिए कि हमारे-आपके समाज में और भी बहुत से कुकृत्य है जो बड़े पैमाने पर किया जा रहा है और उसपर सरकारें मुक़द्दमा भी चलाती है। बहुत संख्या को देख कर समता के सिद्धांत पर उन्हें भी निरपराध घोषित कर दिया जाना चाहिए ।
इस बकवास के पीछे मेरा यह कहना है कि नैतिकता को कानून से रौंदने की कवायद ठीक नही। विशेष कर गे - टाइप लोगों को , जो कि बहुधा लिजलिजे से , घिनौने से प्रतीत होते हैं , यह व्यवस्था देकर 'सोशल मोरल ' रौंदने की कानूनी कोशिश है। नैतिकता से बलात्कार करने का षडयंत्र है।

शनिवार, 30 मई 2009

ऊधो! मन न होहि दस-बीस

प्रेम हो या पूजा = इवादत हो कि मुहब्बत - ज़रूरी है अप्रतिहत निष्ठां , एक यकीनी अहसास।
कोई भक्त अपने ईश्वर या आराध्य के प्रति तभी आराधना करे जब वह उसकी शुभता, शक्तिमत्ता और अनुग्रह-प्रियता पर एकनिष्ठता से विश्वास करता हो।
भक्ति आपकी च्वाइस है- किसी ने आपको विवश नहीं किया कि आप भक्ति करें। और फिर यदि आपने भक्ति को चुना तो निर्विकल्पक रूप से अपने प्रभु की आराधना करें।
उपनिषद् कहती है - क्षुरस्य धार इव निशिता दुरत्यया। यानि यह तेज छुरे की धार पर चलने जैसा दुष्कर कार्य है।
यो बारी है प्रेम की खाला का घर नाहिं।
सीस उतारो भूइं धरो फिर पैठो घर माहि। ।
यदि आपका अंहकार शेष है, यदि आपका इगो बचा हुआ है कि मैं भी कुछ हूँ तो पूजा अर्चना व्यर्थ है। यह अंहकार ही आप और आपके प्रभु के बीच की अभेद्य दीवार है।
किंतु यदि आपने अपने सर्वस्व का अपने आराध्य के प्रति समर्पण कर दिया तो दूसरी भावना आप तक फटक ही नही सकती। आजमाया हुआ है, आप चाहें तो आजमा लें ।
रहिमन भरी सराय लखि, पथिक आपु फिरि जाय।
यही हुआ था ज्ञानी-ध्यानी ऊधव कृष्ण की दीवानी गोपियों को समझाने गए कि अब कान्हा की आस छोडो -कुछ पर-ब्रह्म के निर्गुण रूप की आराधना करो। गोपियों ने उद्धव का बड़ा मान किया , सम्मान किया क्योकि वे ब्रह्म-ज्ञानी थे, शास्त्र-वेत्ता थे। साथ ही अपनी विवशता बतलाई कि हमारे पास एक-एक ही मन है जो कान्हा में तल्लीन है। दूसरा मन कहाँ से लाऊँ, जिससे आपके बताये अनुसार आराधना करूँ। हमने कन्हैया को मन में बसा लिया है। हम विवश हैं , परवश हैं ।
इस बात को सुन उद्धवजी को भक्ति का सार समझ में आया । गोपियों को तनिक भी संदेह होता तभी उस संदेह छिद्र से उद्धव का ज्ञान गोपियों के हृदय तक पहुँच पाता।
जहाँ संदेह है वहां पूजा हो अथवा प्रेम - कुछ सफल नही हो सकता।
आप प्रेम करते हुए किसी की परीक्षा नही कर सकते तो भक्ति करते अपने आराध्य पर किंचित भी अविश्वास नही कर सकते।
आप ने असफल प्रेम की कहानियाँ अवश्य सुनी होंगी - वहां यकीन का मजबूत अहसास नही होता होगा।
भक्ति हो या प्रेम इसे समझौते या एग्रीमेंट की तरह नहीं समझ सकते।
और जो ऐसा समझते हैं उनका जो भी हश्र होता है आपको विदित ही होगा।
आप की असहमति की व्यग्र प्रतीक्षा में,
आप सबका ।

मंगलवार, 26 मई 2009

'अहम् ब्रह्म अस्मि' का तात्पर्य

अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।

शुक्रवार, 22 मई 2009

पतन का कारण

ध्यायतः विषयान पुंसः संगः तेषु उपजायते ;
संगात संजायते कामः कामत्क्रोधो अभिजायते।
क्रोधात भवति संमोहः सम्मोहात स्मृति-विभ्रमः ;
स्मृति-भ्रंशात बुद्धि-नाशः बुद्धि-नाशात प्रनश्यति।
अर्थात
मन यानि हमारी इच्छा और संकल्प का आधार ही हमारे दुःख-सुख, हानि-लाभ, भय-क्रोध आदि सभी भावों का एक मात्र अधिष्ठान है। हमारे पास किसी भी तरह की अनुभूति का एक मात्र जरिया है ।
इस बात ऐसे समझो
आप जब खाना खा रहे है तो खाने में मजा क्यों आता है अथवा क्यूँ नहीं आता है ?
हम हर वस्तु ( विषय ) से एक ज्ञानात्मक / संवेदनात्मक सम्बन्ध बनाते रहते हैं , या यूँ कहें कि बनते रहते है।
इन्ही संबंधो का विकास हमारे अन्दर इच्छा के रूप में होता है। यानि हम उसे पाना चाहते है - यही है संग, आसक्ति , वासना ।
सांसारिक जीवन में जितने उत्थान पतन होते हैं -इसी के कारण होता है।
तो क्या मनुष्य इच्छा करना छोड़ दे?
कतई नहीं, हाँ इसके कारण जो भी दुःख-सुख , पीडा , संताप होगा उसे झेलने को तैयार रहे।
संतों का कहना है कि दुःख से बचने की इच्छा करने वाले को सुख का त्याग करना होगा। ऐसा नही हो सकता कि सिर्फ़ सुख ही सुख हो।
दुःख से बचने विकल्प है सुख से भी सामान दूरी बनाने के बाद।
मित्रो!
इच्छा समाप्त करने का महान उपदेश तो मैं नहीं दे पाउँगा तो संयम को मशविरा तो दूंगा। मन , वचन, कर्म - तीनों रूपों में आत्म-नियंत्रण रखने वाला कभी पराजय को नहीं पायेगा।
नहीं, नहीं, यह जीतने का फार्मूला नहीं है - यह है नहीं हारने का नुस्खा, रात को चैन से सोने का रास्ता।

शुक्रवार, 8 मई 2009

दर्शन क्या है !

दोस्तों !
आप सोचते हैं ?
क्या सोचते है ?
क्यों सोचते हैं?
बिना सोचे काम न चलेगा ?
आप सोचते कैसे हैं- क्या इस पर कभी गौर किया है ?
आप हैं- इस बात की कोई गारंटी है आपके पास ?
आप अपने बारे में क्या जानते हैं?
नहीं, कोई जल्दी नहीं है ठीक से सोच समझकर फिर इसका जबाव दें ।
आज का सवाल -
आप अपने विषय में बस एक सूचना दें जिसमे आप के आलावा कोई और , मैं दुहराता हूँ -कोई भी दूसरा किसी भी रूप में सम्मिलित न हो।

मुझे आपके जबाव का इंतजार रहेगा ।
आपका शुभचिंतक
रवीन्द्र दास