( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

उपनिषद साहित्य

१. उपनिषद-साहित्य भारतीय मनीषा का दार्शनिक प्रस्थान बिंदु है जो कि परवर्ती भारतीय दार्शनिक चिंतन की दिशाओं को नियमित एवं निर्देशित करता रहा है|

२. दार्शनिक जगत की प्राथमिक समस्या मौलिक एवं आधारभूत तत्त्व का अन्वेषण तथा विश्लेषण है कि किस कारण से चराचर जगत-जीव-अजीव आदि विषयक सृष्टि संभव हो पाती है|

३. यह मानवीय चिंता और आकांक्षा का स्वभाव है कि वह हर स्थिति के मूल की खोज का प्रयास करती है|

४. किन्तु व्यवस्थित शास्त्र के पूर्ण विकसित न हो सकने की दशा में एक तरह की अस्पष्टता का बना रहना भी स्वाभाविक सा ही प्रतीत होता है|

५. यद्यपि, विशेष रूप से, उपनिषदों में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, नीतिमीमांसा, ईशमीमांसा आदि सभी एकान्वित ही प्रतीत होती हैं तथापि इनकी सभी शाखाएं मूलतत्त्व के अन्वेषण अर्थात तत्त्वमीमांसा को ही आश्रय करके ही अवस्थित हैं|

६. एक से अनेक और अनेक से एक के संबंधों की सतर्क एवं बुद्धिसंगत व्याख्या जैसी उपनिषदों में प्राप्त होती है, अन्यत्र प्रायः अप्राप्य है|

७. आधुनिक समालोचकों और इतिहासवादियों को, संभवतः, उपनिषद दुरूह, कल्पित, रहस्यात्मक प्रतीत होती हों किन्तु अध्येताओं को यदि समुचित सिरा मिल जाता है तो उपनिषद सरल और सुबोध विचार-मीमांसा की तरह हमारे सम्मुख अवतरित होती है|

८. उपनिषद अपने वैचारिक दृष्टिकोण के लिए वैदिक पवित्रता का अनिवार्य रूप से सहारा नहीं लेती|

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

कर्म-फल और ईश्वर

संसार के सृजन में ब्रह्म को अधिष्ठान बनाकर अविद्यात्मक माया ही क्रियाशील रहती है। समझने की बात यह है कि यह जगत माया के कारण है, अविद्या के कारण है। कोई सांसारिक व्यक्ति इसीलिए सांसारिक है क्योंकि वह अविद्याग्रस्त है। यदि वह शुद्ध ज्ञानात्मक होता तो उसे सांसारिक होने की किसी भी तरह की आवश्यकता ही न होती। किन्तु प्रदत्त स्थितियां ये हैं कि व्यक्ति (जीव) सांसारिक है। सांसारिक होना किसी की स्वेच्छा नहीं, नैसर्गिक अनिवार्यता है। परिभाषा रूप से हम समझ सकते है कि व्यक्ति अपनी ही अज्ञानात्मक का उत्पाद है।
दूसरी ओर, ईश्वर, जिसे तकनीकी रूप से सगुण ब्रह्म समझ सकते हैं, भी उसी अविद्यामूलक माया की ही सृष्टि है। सत्त्वगुण की प्रधानता के कारण वे कर्म-परिणाम की अनंत श्रृंखला से मुक्त होते हैं।
संसार उपासना, भक्ति, पूजा आदि का प्रचलन देखा जाता है। सांसारिक पूजा सांसारिक कामनाओं के लिए की जाती है। इस तरह की पूजा में पूजा करने वाला भगवान से, ईश्वर से यह अपेक्षा रखता है कि वे उसके लिए उस स्थिति को सुलभ करवा दें जो उसके प्रयासों से नहीं हो पा रहा है। इस काम के पूजक कुछ विनती करता है, कुछ सेवा करने का अभिनय करता है और ईश्वर की प्रतिष्ठित मूर्ति, चित्र अथवा अन्य प्रतीक समक्ष कुछ भौतिक पदार्थ भी रखता है। और अकिंचन होने का दंभ भी भरता है ताकि ईश्वर उसकी अभिलाषा पूरी कर दें और वह सांसारिक रूप से अधिक सबल, अधिक सक्षम हो जाये।
किन्तु बंधुओ, ईश्वर या तो नासमझ है अथवा सबकुछ समझने बूझने वाला। क्या पूजा करने वाला यह नहीं सोचता कि यदि ईश्वर सबकुछ देख समझ रहा है तो अगरबत्ती की सुगंधि, चंद फूल और मुट्ठी भर मिठाई आगे रखकर उससे वैसा काम करवा लेंगे जो संभव नहीं है ? यह बिलकुल असंभव है। ईश्वर कोई रिश्वतखोर अफसर नहीं, जो लिफाफा पकड़ कर काम करदे। वह भी नैसर्गिक नियमों से उतना ही बंधा है जितना कि एक व्यक्ति। संसार में किये गए प्रत्येक कर्म अपने निश्चित और अनिवार्य परिणाम उत्पन्न करते ही हैं। कर्म का फल ईश्वर नहीं कर्म स्वयं ही निश्चित करता है। बस, इतना है कि ईश्वर की अध्यक्षता में कोई घोटाला नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं कि लोग-बाग ईश्वरीय न्याय से बहुध असंतुष्ट रहते हैं। और इस बात में भी कोई शक नहीं कि ऐसे लोग स्वयं से, आस-पास के लोगों से , सबसे असंतुष्ट रहते हैं। मूलतः धूर्त और चालाक लोग ईश्वर से अपना काम फटाफट निकलवाना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। और अंत में, ईश्वर से अकारण दया और कृपा की अपेक्षा करना भी असंगत है। ईश्वर सबका है, सबके लिए है। इसका तात्पर्य यह है कि जो संसार में रमे हुए हैं उनका शरण संसार है और जो संसार से दुखी और पीड़ित है, ईश्वर उसके लिए हैं।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

काल [समय] के विषय में

१ काल जीवन की पूर्व-स्थिति है।
२ सत्ता कालातीत है, किन्तु उसका अनुभव काल- सापेक्ष है।
३ जीवन शुद्ध सत्ता नहीं है।
४ जीवन में सत्ता अनिवार्यतः एक असत्ता पर आभासित [प्रतीयमान] होती है।
५ इसीलिए जीवन की समाप्ति की बात की जाती है।
६ जीवन ज्ञानात्मक होने से सत्तात्मक प्रतीत होता है किन्तु समाप्त हो जाने से असत्तात्मक सिद्ध होता है।
७ काल वस्तुतः शुद्ध सत्ता का निषेधक है।
८ जो काल [और देश] में संबोध्य है वह अनिवार्यतः नाशवान है।
९ काल [समय] कोई वास्तु नहीं, एक चैतसिक पूर्वग्रह है जो अज्ञानमूलक अभ्यास का चेतन परिणाम है जो व्यक्ति के अहम्बोध पर हावी हो जाता है।
१० अहम्बोध का तात्पर्य है- स्वयं के ज्ञानवान होने का बोध।
११ अहंकार के नाश होने के साथ ही कालबोध[ समय की अनुभूति] भी तिरोहित हो जाता है।
१२ सत्ता से साक्षात्कार अहंकार का तिरोभाव है।
१३ काल और अहंकार से ही जीवन परिचालित होता है।
निष्कर्ष: जीवन को समझने के लिए अपने अहम्बोध और कालबोध को सम्यक रूप से समझें।