( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

प्रकृति और पुरूष

प्रकृति और पुरूष ।
सांख्य दर्शन की व्याख्या है कि मूल तत्त्व के दो रूप हैं - प्रकृति और पुरूष। पुरूष अर्थात चेतन तत्त्व । चेतना कैसी? निरपेक्ष, उदासीन , निष्क्रिय - सिर्फ़ देखता रहने वाला साक्षी = प्रतिक्रिया विहीन साक्षी ।
किंतु प्रकृति अचेतन है, जड़ है तो भी सक्रिय है । यह सक्रियता कैसी है ? एक अचेतन तत्त्व में सक्रियता कैसे आ सकती है ? यह सक्रियता आती है पुरूष के साहचर्य से , सहवास से। पुरूष का संसर्ग मात्र पाकर प्रकृति चंचल हो उठती है, सक्रिय हो उठती है, जैसे प्रिय के आगमन से कामिनियाँ चंचला हो जाती हैं ।
सांख्य दर्शन का यह रूपक पुरूष वर्चस्व वादी है - यह अच्छा नहीं है किंतु है।
ध्यान देने की बात है कि प्रकृति सब कुछ करती है, यही सब कुछ करती है किंतु उसके कुछ भी करने के लिए पुरूष का सान्निध्य अनिवार्य है। अकेली प्रकृति कुछ नहीं कर सकती । पुरूष वाद ने अपना खेल कर लिया । बच्चा जानेगी स्त्री और वंश चलेगा पुरूष का !
पुरूष निर्लिप्त है , पुरूष को किसी भी तरह की लिप्सा नहीं है । उसे प्रकृति ही भोग के संसार में ले जाती है - ऐसा सांख्य दर्शन मानता है।
सांख्य दर्शन और भी बहुत कुछ कहता है। अपनी धारणा को बनाए रखने के लिए बहुत सारे प्रपंच रचता है।
पुरूष और प्रकृति ।
संसार के दो स्तम्भ है - सुनने में अच्छा लगता है किंतु व्याख्या जब आगे बढती है तो इसमे विद्रूपता और भयानक होकर सामने आती जाती है ।
पारस्परिकता के नाम पर सांख्य दर्शन पक्षपात की राजनीति करता है।