( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

चेतना के दो रूप

चेतना के दो रूप होते हैं-
१) विशुद्ध चेतना और
२) प्रकार्यात्मक चेतना ।
हम चेतन कार्यों में जिस चेतना से रूबरू होते है, वह है प्रकार्यात्मक चेतना यानि फंक्शनल कांशसनेस । चेतना का यह रूप प्रक्रियाशील रहता है इसलिए इसमे परिवर्तन की सम्भावना हमेशा रहती है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह पल-पल परिवर्तित होता भी रहता है ।
शुद्ध प्रत्ययवादी दार्शनिक आदि शंकराचार्य और शुद्ध भौतिकवादी चिन्तक कार्ल मार्क्स , आश्चर्यजनक रूप से इस मसले पर एक-मत हैं।
और जो विशुद्ध चेतना है उसके विषय में शंकराचार्य कुछ भी स्पष्ट कहने से बचते है तो मार्क्स इसे तत्त्वमीमांसा का मुद्दा बता कर इससे बचने का मशविरा करते हैं।
फ़िर यह विशुद्ध चेतना है क्या बला? तो मैं आपको समझाता हूँ-
हमारी चेतन अवस्था की तीन उप-अवस्थाएँ हैं -१) जाग्रत , २) स्वप्न अर्थात अर्ध निद्रा तथा ३) सुषुप्ति ।
जाग्रत अवस्था अर्थात जगी हुई स्थिति में प्रक्रियाशील चेतना अपने मुखर स्वरूप में क्रियाशील रहती है। स्वप्न में यही चेतना अपने अवचेतन को अग्रसर कर देती है। इस अवस्था में स्वप्न द्रष्टा पूर्वोक्त चेतना द्वारा जुटायी सामग्री का पुनः उपभोग करता है, जैसे घास खाने वाले पशु पागुर करते हुए कए हुए को फिर खाकर आनंद पाता है। अब सुषुप्ति में , जब सारी इन्द्रियां शिथिल होकर अपने-अपने कर्तव्य से विरत हो चुकी होती है यानि कान सुन नहीं सकता हो, नाक सूंघ नहीं सकती हो, आँखे देख नहीं सकती हो , त्वचा स्पर्श-ज्ञान नहीं ले सकती हो , जीभ स्वाद का रस नहीं ले पाता हो और मन संकल्प-विकल्प अर्थात किसी भी प्रकार की सोच-विचार में असमर्थ हो । इस स्थिति को आश्वास - मरण की तरह भी समझा जा सकता है - यही है सुषुप्ति की अवस्था ।
इस सुषुप्ति की अवस्था में चेतना तो बनी रहती है । या नहीं? किंतु चेतन व्यवहार का पूर्णतया अभाव रहता है। चेतना की यह अवस्था ही विशुद्ध चेतना है।
यहाँ , इस अवस्था में चेतना चेतना को देखती है किसी और को नहीं ।
जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ , इस अवस्था के विषय में विमर्श करने से चिन्तक-दार्शनिक हमेशा से बचते रहे हैं क्योंकि इस स्थिति को सत्यापित या मिथ्यापित किया जाना लगभग असंभव है - यह आत्मसाक्षात्कार का मामला है(जिसमें वैज्ञानिक समझ वाले लोगों की रूचि नहीं भी हो सकती है) ।
छान्दोग्य उपनिषद कहती है, प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दिन ब्रह्म-लोक की यात्रा करता है (किंतु कोई विरला ही ब्रह्म का शुद्ध चेतना का अहसास कर पाता है)।
यही हैं चेतना के दो रूप।
अतिरिक्त जिज्ञासा , प्रश्न अथवा विवाद के लिए अवश्य लिखें।
विनीत,
डॉ रवीन्द्र कुमार दास