( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )

बुधवार, 15 जुलाई 2009

निष्काम कर्म और सकाम कर्म

काफी पहले की बात है, मेरे किसी मित्र ने पूछा कोई ऐसा रास्ता बताओ जिससे दुःख न हो।
मैं पहले काफी घबराया कि क्या बेतुका सवाल है। फ़िर मैंने पूछा कि सुख चाहते हो या दुःख से छुटकारा ? मित्र ने दुःख से छुटकारा ।
मैंने कहा निष्काम कर्म कर्म करो। दुःख बिल्कुल न होगा।
निष्काम कर्म मतलब?
कर्म करो क्योंकि कर्म करना ही पड़ता है। लेकिन नतीजा से संचालित होकर कर्म करोगे तो दो स्थितयां होंगी- या तो मनोनुकूल परिणाम आएगा या नही आएगा । आया तो खुशी होगी और न आया तो दुःख ।
ये तय है कि कर्म अपने परिणाम को स्वयं निर्धारित करता है यानि कर्म के बराबर ही परिणाम होता है। तो पूछोगे निष्काम कर्म की क्या जरुरत?
जरुरत है अटैचमेंट कम करने की ।
किसी भी काम को एक काम जानो- नतीजा पैदा करने का जरिया न मानो।
वह उलझ गया
मैंने कहा - कर्म दो तरह के होते है- एक , जो हम भौतिक परिवर्तन के उद्देश्य से करते है , जैसे , दूध से दही बनने का उपक्रम या जो भी इस तरह के काम है। और दूसरा है- जो हम किसी मानव-व्यक्ति को प्रभावित करने के उद्देश्य से करते है , जैसे प्रेम या चापलूसी या चुगलखोरी । हम इस तरह के कर्म एक निश्चित उद्देश्य को लेकर ही करते हैं तथा इस तरह के कार्यों में असफल होने के खतरे बहुत अधिक होते हैं।
यह दूसरे तरह के कार्य ही है - सकाम कर्म , जो इन कार्यों से बचा हुआ है उसे न्यूनतम दुःख होता है।
जैसे आपने बहुत मेहनत करके खाना बनाया- भोजन तैयार भी हो गया आप बैठे हैं खानेवाले खाने की तारीफ करेंगे = बस यहीं आप गलती कर रहे हैं। खाना बनाना आपके वश में था और आप तारीफ सुनना चाहते हैं
या आप किसी का काम ख़राब करवाकर उसकी बेइज्जती करवाना चाहते हैं = यहाँ आप सकाम कर्म की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं ।
संक्षेप में , कर्म के अनिवार्य परिणाम से रत्ती भर अधिक की आकांक्षा सकाम कर्म है ।
एक उदहारण और लेते है।
कोई पुरूष है - वह किसी स्त्री की खूब देखभाल या आगे-पीछे करता है। वह पुरूष उस स्त्री से प्रेम की उम्मीद करता है जो पूरी नहीं हो पाती । वह पुरूष दुखी हो जाता है । अब इस दुःख का क्या मतलब है ?

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