बहुत साल हुए, बल्कि शताब्दी गुजर गई - किसी अर्ध-विक्षिप्त दार्शनिक नीत्से ने कहा था कि ईश्वर मर गया।
हम ठहरे ईश्वरवादी पुतले , सो हमने महत्त्व न दिया।
सवाल है कि ईश्वर था कहाँ ?
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, या गिरजों में ?
या हमारे आपके मन में, ह्रदय में ?
मैं यह दावे से नहीं कह सकता कि ईश्वर है या था ?
पर मैं यह निश्चय पूर्वक कहना चाहता हूँ कि ईश्वर का डर था ?
इसी डर से ईश्वर का शासन, प्रशासन कायम था।
फिर लोगों ने ईश्वर का डर दिखा कर अपना उल्लू सीधा करना शुरू किया ।
भोले-भले लोग डरे भी।
फिर वे भोले-भले लोगों ने भी ईश्वर से नहीं डरने का हिम्मत जुटाया ।
और , अभी का मौजूदा हाल यह है कि कोई भी ईश्वर से नहीं डरता।
हाँ, लोग-बाग थोड़ा सा , बहुत थोड़ा सा , जैसे, करोड़ के लिए दो - चार हजार दे कर अपना काम निकलवाने ईश्वर की शरण में जाने की चतुराई जरुर करने लगे हैं।
खैर! ईश्वर सबका भला करें।
फिर भी , ईश्वर यदि जीवित होते तो कहीं कोई ईमानदारी दिख जाती, जो दीखता नहीं - इसलिए हे प्रभु! तुम्हारे जीवित होने की आस रही नहीं।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
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2 टिप्पणियां:
Soch me daal diya!
aapki baat ek ne bhi suni to maano kahna saphal huaa. dhanyavad, SANDHYAji!
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