बड़ा ही पुराना प्रसंग है - सच और झूठ का ।
क्या होता है सच ? हमें पता है ? फिर भी हम दावा करते है कि जी, हम सच जानते हैं। और हमारे इसी दावे से दुनियादारी का कारोबार बेखटके चल रहा है। इसी दावे से हम अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और इसीके सहारे जीते-जीते एक दिन हम परम धाम की ओर चल पड़ते हैं। हमारा सच या तो यहीं रह जाता है या फिर कहीं खो जाता है। और जब मैं ही न रहा तो उस सच की कौन खोज करता है। जय रामजी की।
सच क्या था ?
हमने कभी विचार नहीं किया , बस मान लिया क्योंकि मेरे आने से पहले सब उसको सच मानते थे और हमारा क्या जाता था , सो हमने भी उन सभी लोगों के साथ शुरू हो गए और चलते गए, बहते गए, बहते गए बहुत दूर तक ।
ये हुआ सच। सच सबके साथ का सच। काम चलाना था इसलिए मेरा भी सच। सच के व्यावहारिक उपयोग के लिए यह जरुरी है कि इसकी सामाजिक स्वीकृति हो, सार्वजानिक स्वीकार हो। अन्यथा यह अनर्गल प्रलाप कहलाता है।
और हम प्रलाप नहीं करना चाहते, हम अपने भावों को संप्रेषित करना चाहते हैं।
लेकिन झूठ ?
झूठ का कोई चेहरा पहचानते हैं आप ?
यह झूठ क्या होता है ? आप जिसे सच नहीं मानते , वह झूठ होता है, है न !
' इसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है, लगता है यह झूठ बोल रहा है। '
हम अक्सर दूसरों के झूठ के लिए चिंतित रहते हैं। लेकिन दूसरों से मुझे क्या मतलब ?
मतलब है ।
मतलब होना नहीं चाहिए था पर होता है। क्यों? क्योंकि हम परमुखापेक्षी हैं। परमुखापेक्षी होने का अर्थ है- हम अपने को दूसरों की नजरों में बनाना चाहते है। हम अपना वजूद ही तब मानते है जब दूसरा स्वीकार करे।
आइए, विचार करें कि झूठ क्या होता है?
जब हम अपने वजूद, अपनी उपस्थिति, अपना अस्तित्व को स्वीकार करवाने की धुन में अपने भी हृदय के विरुद्ध जब कुछ बोलते हैं अथवा कोई कार्य-कलाप करते हैं, वही झूठ होता है।
झूठ असत्य और मिथ्या से अलग होता है। अलग इस अर्थ में होता है कि एक मनुष्य , सजग और समझदार मनुष्य असत्य और मिथ्या पर विश्वास करता है और प्रायः तनिक संदेह भी नहीं करता किन्तु झूठ पर वह विश्वास नहीं कर पाता। असत्य और मिथ्या धारणा, समझ और विश्वास से समबद्ध होते हैं किन्तु झूठ व्यक्ति से सीधा जुड़ा होता है।
जिस बात को बोलना या जिस काम को करना हमें ही गलत और अनुचित लगे , वह झूठ है।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
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