( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
रविवार, 4 अप्रैल 2010
शंकराचार्य के दर्शन के विषय में
आचार्य शंकर भारतीय दार्शनिक जगत के सबसे अधिक लोकप्रिय और संभवतः प्रतिनिधि चिन्तक हैं। उनके इस श्लोकंश, " ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" से दार्शनिक जगत का नौसिखुआ भी अवगत है और इसी अतिलोकप्रियता के कारण उनका चिन्तनात्मक अभिप्राय बहुधा एक सरल किम्वदंती के रूप में अनुदित होने लगा। इस तरह का अनुवाद एक ओर तो उनकी लोकप्रियता को द्योतित करता है किन्तु दूसरी ओर उनके गंभीर दार्शनिक प्रसंगों को सरलीकृत कर उसे हास्यास्पद बनाता है। विगत दो शताब्दियों में गंभीर और प्रतिभाशाली आलोचकों और प्रत्यालोचकों ने इस कृत्य को बड़े मनोयोग से किया है। यह या तो अनुदार मनोवृत्ति का कार्य है अथवा भयमिश्रित चेतना की प्रतिक्रिया। यद्यपि इसके भी कारण हैं। पहला, संस्कृत भाषा, जिसे प्रगतिशीलता और आधुनिकता का सर्वथा प्रतिगामिनी मानी गई तो दूसरा कारण यह रहा कि भारत आधुनिक समाज की निकटवर्ती परिधि से बाहर अवस्थित रहा। तथापि अब भू -मंडली- करण के इस दौर में उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में इन कारणों की पकड़ शिथिल पड़ गई सी प्रतीत हो रही है। अतएव, धर्म-मीमांसक और तत्त्व-मीमांसक के रूप में स्थापित आचार्य शंकर को समाज-मीमांसक के रूप में प्रस्तावित करता हुआ इसी लेखक का प्रयास है - शंकराचार्य का समाजदर्शन, विद्यानिधि प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित है। आपकी कृपा दृष्टि इस पुस्तक पर पड़ेगी तो इस अकिंचन का श्रम अवश्य सार्थक होगा।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें