संत कबीर ने कहा था,
" प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे,सीस देहि लै जाय।। "
संत की बानी हमने सुनी, हमने पढ़ी, एक बार नहीं हजारों बार, बार-बार । पर हमने समझा क्या? क्या जाना ? प्रेम के लिए 'सीस' देना पड़ता है।
विद्वानों ने , पंडितों ने इस दोहे की व्याख्या की कि यह सांसारिक प्रेम के विषय में नहीं कहा जा रहा बल्कि यह तो ईश्वरीय प्रेम के विषय में है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्म-समर्पण करना अनिवार्य है। चलो, हमने विद्वान् पंडितों की बात मान ली। लेकिन वे पंडित मुझे यह समझावें कि बिना सांसारिक प्रेम का हार्दिक अनुभव किए बिना हम ईश्वरीय प्रेम के प्रति क्यों लालायित होंगे ?
कोई भी सांसारिक प्रेम का माधुर्य जानकर ही कि प्रेम इतना मधुर होता है, ईश्वरीय प्रेम के लिए उत्कंठित हो पाता है। इसके आलावा, अपन तो ये मानते हैं कि प्रेम प्रेम होता है। प्रेम में मानवीय और ईश्वरीय का कोई भेद ही नहीं होता है। दोनों के माधुर्य में कोई अंतर नहीं होता है। प्रेम की कोई भी स्थिति हो, प्रेम होगा तो प्रेम-पात्र का अंतःकरण गीला हो ही जाएगा, पसीज ही जाएगा।
अपनी समझ तो कहती है कि प्रेम वह अनुभूति है जिसमें प्रेम पात्र अंतरतम पसीज जाये, हृदय उदात्त हो उठे और अन्तःकरण की सारी सीमाएं टूट जाए।
जैसे बरसात में नदी-नाले अपना संकुचित मर्यादित रूप को छोड़कर उदात्त और उदार हो जाते है, वैसे प्रेम में पगा हुआ मनुष्य अपनी संकुचित मर्यादाओं को अतिक्रांत कर चुकता है। हाय रे प्रेम!
जो प्रेम में बावला न हुआ उसने प्रेम क्या किया !
प्रेम रस में भींग जाने पर भी अगर किसी को होश है कि वह कौन है तो शर्तिया वह खुद को छल रहा है, भरमा रहा है। जो अपना अहंकार है, आत्माभिमान है, कुल खानदान जाति गोत्र व्यवसाय हैसियत का अभिमान है , इसी को त्यागना ही सीस देना है।
अपनी सुध-बुध बनी रही, तो काहे का प्रेम, कैसा प्रेम !
अंत में तो यही कहेंगे-
प्रेम मुक्त करता है बांधता नहीं, अपनी मुक्ति का द्वार अपनाओ, खुद को प्रेम में सराबोर कर लो ... प्रेम ही मुक्ति द्वार है प्रेम बांधता नहीं , मुक्त करता है।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
रविवार, 30 जनवरी 2011
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