क्षण और क्षण के बीच भी अंतराल होता है।
उस अंतराल को भी क्षण ही कहना होगा ... और इस तरह अंतराल को खोजते खोजते हम एक तार्किक अनवस्था को प्राप्त होते हैं... और निरुत्तर और अप्रतिभ हो उठते हैं।
इस तार्किक नैराश्य और विवशता के विषण्ण क्षणों में काव्य का उदय होता है .... और संवेग का लास्य इस अंतराल को ढक देता है... हम दार्शनिकता का तिरस्कार कर कवि होने लगते हैं।
कवि होना सहज नहीं , प्रत्युत एक विवशता है।
दर्शन सभ्यता और संस्कृति को ढांचा और आकार देता है ... और कविता तन्यता और चिकनापन देती है।
दर्शन ज्ञान की परम्परा है और कविता ज्ञान का संवेगात्मक विराम।
धर्मवेत्ता लोग ज्ञानमूलक दर्शन से सत्य के स्वरूप को अच्छादित करते हैं ... कवि लोग कविता के माध्यम से सत्य को अनावृत्त करते हैं।
दर्शन और दार्शनिकता ... साधारण जन को भयभीत कर अपना स्थान बनाती है ... कविता और साहित्य ... साधारण जन के रोजमर्रा में अपना स्थान बनाते हैं।
असंबद्ध को संबद्ध करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ प्रेम में है जो कविता का सनातन अवलंब है...
मैं दार्शनिक हूँ ....
मैं कवि होने का अभिलाषी हूँ ....
मैं क्षण और क्षण के बीच के अंतराल को समझना चाहता हूँ.... कविता बनकर समझाना भी चाहता हूँ।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
रविवार, 15 मई 2011
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