सत्य आदर्श है, जिसे हम चाहते हैं... जिसका मूर्त रूप हम देखना चाहते है, पर वह हमें कभी दीखता नहीं। हमें जब दीखता है... यानि हमारा साक्षात्कार हमेशा तथ्य से होता है। तथ्य क्या है ? तथ्य और कुछ नहीं, बल्कि वास्तविकता है। सत्य हमें प्रिय है और तथ्य हमारी विवशता है। सत्य को नहीं छोड़ते ... प्रेम के कारण और तथ्य हमें नहीं छोड़ता।
इन दोनों में अनवरत एक संघर्ष चलता रहता है... एक द्वंद्व मचा रहता है। इस द्वंद्व का , इस संघर्ष का अधिष्ठान कहाँ होता है... जहाँ ये युद्ध होते हैं ?
वह स्थान है, हमारा मन....
व्यक्ति मन जब अपने आसपास की वास्तविकता से ... अपनी यथार्थ परिस्थितियों से ... असहमत होता है....इसलिए असंतुष्ट होता है तो वह प्रतिक्रिया करता है ... प्रतिक्रिया में वह विद्रोह कर बैठता है। इन प्रतिक्रियाओं में, लेकिन , एक सिसृक्षा अंतर्व्याप्त रहती है। इस कोटि की प्रतिक्रिया सहज प्रतिक्रिया नहीं होती, जैसाकि मच्छर काटने पर व्यक्ति करता है, बल्कि यह एक विशेष प्रकार की सर्जनात्मक प्रतिक्रिया होती है।
इसी सर्जनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं।
कला प्रतिक्रिया है, इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन प्रतिक्रियाओं की कतिपय सरणियाँ हैं- सहज और सुनियोजित। सुनियोजित प्रतिक्रिया की भी दो कोटियाँ हैं- सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक। विध्वंसात्मक सुनियोजित प्रतिक्रिया ही षड़यंत्र कहलाती है और सर्जनात्मक कला । इन्हें सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक होना इस बात पर निर्भर करता है कि इनका उद्देश्य क्या है ?
किन्तु सुनियोजित प्रतिक्रयाएं... हमारे आस-पास की वास्तविकता और हमारे अन्दर के मूल्य बोध के परस्पर द्वंद्व से उत्पन्न होती हैं...और ये प्रतिक्रियाएं अनिवार्य हैं, इन्हें रोका भी नहीं जा सकता।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
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