कभी न कभी , किसी न किसी वज़ह से सबका चित्त व्यथित होता है। लेकिन क्यों होता है ? इस पर विचार किया। विद्वानों का तो कहना है कि सुख और दुःख तो मन के विकल्प हैं। इनकी स्थिति वास्तविक नहीं होती। विद्वान् चाहे जो कहें किन्तु इस अवास्तविक स्थिति से ही हमारा सम्पूर्ण व्यवहार नियंत्रित होता है। हम भरसक प्रयत्न करते रहते हैं कि हमारे चित्त में , ह्रदय में , मन में सुख का स्थायी वास हो और दुःख कभी न आये।
किन्तु हमारे लाख चाहने और कोशिश करने से भी ऐसा नहीं हो पाता। हमारे चित्त में सुख का वास अपेक्षाकृत क्षणिक होता है और दुःख का वास अपेक्षाकृत अधिक स्थायी। तटस्थ मन तो कभी हो ही नहीं पाता। मन की तटस्थता तो मोक्ष है, महा शांति है, निर्वाण है , परम समत्व है, जो विरला ही अर्जित कर पाता है।
संसार में , सांसारिक जीवन में परम शांति चाहिए भी नहीं। अगर परम शांति मिल जाए तो संसार ही निस्सार हो जाए। बल्कि सांसारिकता ही नष्ट हो जाए। हम संसार में शांति नहीं चाहते प्रत्युत विजय चाहते हैं। हम हमेशा द्वंद्व में लगे रहते हैं। इसी द्वंद्व में हम जीत चाहते हैं।
यह द्वंद्व हर बार बाहरी नहीं होता, कभी-कभी आतंरिक भी होता है। और मज़े की बात यह है कि आन्तरिक द्वंद्व बाहर के द्वंद्व से अधिक क्लिष्ट होता। बाहरी द्वंद्व में हम किसी दूसरे व्यक्ति से भिड़ते हैं और जीत के प्रयास करते हैं। इस प्रयास में हम किसी अन्य व्यक्ति को भी सम्मिलित कर लेते है। इसके लिए कई बार पार्टी बन जाती है , समूह बन जाता है फलतः इस तरह के द्वंद्व की हार जीत का मसला व्यक्तिगत नहीं रह जाता, सामूहिक या सामाजिक हो जाता है।
किन्तु जब द्वंद्व आन्तरिक होता है तो स्थिति पूरी तरह से भिन्न होती है। इस द्वंद्व में व्यक्ति स्वयं ही स्वयं के विरुद्ध होता है अर्थात द्वंद्व के इस सिरे पर भी खुद खड़ा होता है और दूसरे सिरे पर भी खुद वही। यह स्थिति हम सबके जीवन में बार-बार आता है। यह बात सुनने में अटपटी सी लग रही हो कि भला कोई खुद ही खुद के खिलाफ कैसे हो सकता है! लेकिन ऐसा होता है।
और इस तरह के आन्तरिक द्वंद्व में जीत किसी की हो - हार आपकी निश्चित होती है। इसे आन्तरिक धर्म-संकट की तरह समझ सकते है। इसकी जीत में भी हार है। हमें जीत की ख़ुशी नहीं हो पाती, हार का गम बेशक होता है।
गीता, श्रीमद्भागवद्गीता कहती है ," सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ " । कैसे होगा कि कोई सुख और दुःख को , लाभ और हानि को तथा जीत और हार को बराबर समझे ?
और जब नहीं समझेंगे तो चित्त व्यथित होगा। जब जब आपकी आकांक्षा पूरी नहीं होगी- चित्त व्यथित होगा।
विकल्प हमारे पास दो हैं -१) या तो इच्छा - अभिलाषा से स्वयं को दूर रखें; २)या व्यथित चित्त के साथ जीने का अभ्यास करे।
" मन रे ! तू काहे न धीर धरे " का कोई सही और ठोस जबाव इस संसार में नहीं है, नहीं है।
( बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। )
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
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2 टिप्पणियां:
जीवन शान्ति का नाम नहीं है अपितु संघर्ष का नाम है। हमारे जीवन में संघर्ष आते ही रहते हैं इसी कारण चित्त भी अशान्त बना रहता है। यदि हम संघर्षों से लड़ना सीख लें तब चित्त व्यथित नहीं होगा अपितु संघर्षशील बनेगा। अच्छा विचार दिया इसके लिए बधाई।
dhanyavad, dr.Ajit Gupta.
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