१. उपनिषद-साहित्य भारतीय मनीषा का दार्शनिक प्रस्थान बिंदु है जो कि परवर्ती भारतीय दार्शनिक चिंतन की दिशाओं को नियमित एवं निर्देशित करता रहा है|
२. दार्शनिक जगत की प्राथमिक समस्या मौलिक एवं आधारभूत तत्त्व का अन्वेषण तथा विश्लेषण है कि किस कारण से चराचर जगत-जीव-अजीव आदि विषयक सृष्टि संभव हो पाती है|
३. यह मानवीय चिंता और आकांक्षा का स्वभाव है कि वह हर स्थिति के मूल की खोज का प्रयास करती है|
४. किन्तु व्यवस्थित शास्त्र के पूर्ण विकसित न हो सकने की दशा में एक तरह की अस्पष्टता का बना रहना भी स्वाभाविक सा ही प्रतीत होता है|
५. यद्यपि, विशेष रूप से, उपनिषदों में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, नीतिमीमांसा, ईशमीमांसा आदि सभी एकान्वित ही प्रतीत होती हैं तथापि इनकी सभी शाखाएं मूलतत्त्व के अन्वेषण अर्थात तत्त्वमीमांसा को ही आश्रय करके ही अवस्थित हैं|
६. एक से अनेक और अनेक से एक के संबंधों की सतर्क एवं बुद्धिसंगत व्याख्या जैसी उपनिषदों में प्राप्त होती है, अन्यत्र प्रायः अप्राप्य है|
७. आधुनिक समालोचकों और इतिहासवादियों को, संभवतः, उपनिषद दुरूह, कल्पित, रहस्यात्मक प्रतीत होती हों किन्तु अध्येताओं को यदि समुचित सिरा मिल जाता है तो उपनिषद सरल और सुबोध विचार-मीमांसा की तरह हमारे सम्मुख अवतरित होती है|
८. उपनिषद अपने वैचारिक दृष्टिकोण के लिए वैदिक पवित्रता का अनिवार्य रूप से सहारा नहीं लेती|
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